परमेश्वर का आविर्भाव ही सृष्टि और जीव के रूप में होता है
जीव का यह अभिर्भाव हेतुपूर्ण है और उसे अपना हेतु प्राप्त करना अनिवार्य है।
जीव के आविर्भाव की प्रक्रिया, जीव का हेतु, जीव हेतु को प्राप्त करने की प्रक्रिया के “सम्यक ज्ञान” के सूत्ररुप को ‘शैवसिद्धांत’ तथा मूर्तिरुप को ‘धर्मचक्र’ कहा गया है
‘धर्मचक्र’ परमेश्वर और जीव के एक्य का प्रतिपादक शिद्धांत है।
तथा ‘धर्मचक्र’ सनातन धर्म का मूलाधार बीजरुप शिद्धांत है।
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‘धर्मचक्र’ परमेश्वर और जीव के एक्य का प्रतिपादक शिद्धांत है।
तथा ‘धर्मचक्र’ सनातन धर्म का मूलाधार बीजरुप शिद्धांत है।
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संपूर्ण जीवराशि का हेतु अखंड रूप से एक और अनिवार्य है। इस अनिवार्यता को ही ’धर्म’ कहा गया है।इसे एकमात्र ‘धर्मचक्र’ के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।
परमेश्वर के द्वारा यह धर्मचक्र सृष्टि आरंभ में उच्च स्तरीय दिव्य आत्माओं, जिन्हें ऋषि कहा गया है, को प्रदान किया जाता है। ये ऋषि धर्मचक्र की चेतना को कठोर तपश्चार्य के द्वारा आत्मसात करके वैश्विक धरातल पर अभिव्यक्त करते रहे हैं।
इसी के बल पर विश्वप्रजा अपने जीवन का हेतु प्राप्त करती रही तथा संपूर्ण विश्व में में सनातन धर्म का प्रवाह बना रहा
वस्तुत जीव का हेतु निर्वाण, केवल्य मुक्ति या मोक्ष प्राप्त करना नहीं अपितु विश्वविजय प्राप्त करना है। विश्व भी दो है एक जीवन रूप दूसरा जगत रूप इसलिए विश्वविजय भी द्विविध है । जीवन का हेतु प्राप्त करना यह प्रथम प्रकार है विश्वविजय का तथा तथा जगत के लिए इस हेतु प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करना यह द्वितीय प्रकार विश्वविजय का । यह द्विविध विश्वविजय समस्त जगत के लिए उपलब्ध एकमात्र मार्ग, सर्वोपरि, परमपवित्र और परम कल्याणकारी है। किंतु इस पवित्र विश्वविजय को एकमात्र धर्मचक्र द्वारा ही जाना जा सकता है तथा धर्मचक्र प्रवर्तन द्वारा ही से प्राप्त किया जा सकता है।
एकमात्र भारत ही धर्मभूमि है। अतः भारतीयों के लिए विश्वविजय प्राप्त करना नितांत अलंघनिय, अनिवार्य, सर्वकालिक, तथा सर्वोपरि कर्तव्य है।
पवित्र विश्वविजय सदैव भारत भारतीय और भारतीयता का
मूलाधार रही है।
जो पवित्र है वह गोपनीय भी है।
अतः ‘धर्मचक्र’ को सदैव गोपनीय रखा गया, केवल उच्चस्तरीय ऋषियों तथा उनके योग्य शिष्यों को ही ‘धर्मचक्र’ में निष्णात किया जाता था।
कालांतर में मौखिक शास्त्रों का निरुपण ग्रंथों के रुप में होने लगा।
उस समय ‘धर्मचक्र’ का भी उल्लेख रहस्य संप्रदाय के अनेकों शास्त्रों में प्राप्त होने लगा। महाकाल संहिता में ६० सूत्रों का ‘धर्मचक्र प्रभव’ नामक संपूर्ण अध्याय पाया जाता था।
भूतले विश्वविजयार्थ महाकालस्य धर्मचक्र प्रवर्तने………!
इस सूत्र से यह अध्याय प्रारंभ होता है।
भगवान कृष्ण ने धर्मचक्र को प्राप्त करने हेतु महाकाल साधना की थी। फलस्वरूप रहस्य संप्रदाय के एक श्रषिप्रवर के द्वारा भगवान कृष्ण को ‘धर्मचक्र’ का रहस्य प्राप्त हुआ।
‘धर्मचक्र’के बल से ही भगवान कृष्ण कहा था
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्
‘धर्मचक्र’ के प्रभाव से धर्म की कभी हानी हो ही नहीं सकती।
और धर्म का पुनरुत्थान एकमात्र ‘धर्मचक्र’ के द्वारा ही हो सकता है।
परंपरागत रूप से ‘धर्मचक्र’ का प्रवाह ३००० बर्ष पूर्व तक चलता रहा।
किंतु कर्तव्यहीनता तथा विभिन्न षड्यंत्रों के कारण ‘धर्मचक्र’
का लुप्तीकरण प्रारंभ हुआ।
किसी मिथ्या धर्म प्रचार हेतु ‘धर्मचक्र’ के ज्ञाता ऋषियों को जीवित ही अग्नि में जला दिया गया, या तो जिवित काट दिया गया।
अब मुठ्ठी भर ऋषियों को ही ‘धर्मचक्र’ का ज्ञान था वे सामान्य समाज से दूरस्थ गुफाओं कंदराओं तथा वनों में भूमिगत हो ‘धर्मचक्र’ का अभ्यास करते रहे।
इस तरह गुप्त रुप से ‘धर्मचक्र’ परंपरा के द्वारा प्रवाहित होते हुए बारह ग्रहस्थ ऋषियों जो कि
अंतरवेदी के प्रसिद्ध नगर कान्यकुब्ज में निवास करते थे, तक पहुंचा। यह ऋषि
‘धर्मचक्र’ के अंतिम ज्ञाता माने जाते हैं। इन ऋषियों को ‘धर्मचक्र’ का ज्ञाता होने के कारण ७४५ ई• में गंगा तट पर, यवन सैनिकों के द्वारा जीवित ही जि़बह कर छोटे छोटे टुकड़े कर गंगा में प्रवाहित कर दिया गया। तथा इनकी पत्नियों का नगर के मध्य सामुहिक बलात्कार कर जीवित ही अग्नि में जला दिया गया।
तत्संबंधित यवन शासक ने इन यवन सैनिकों को इस कृत्य के लिए पुरस्कार और सम्मान भी प्रदान किया
नोट :- ध्यातव्य रहे सनातन धर्म और संस्कृति का मूल स्रोत‘धर्मचक्र’ही है।
मुठ्ठी भर ऋषियों द्वारा ‘धर्मचक्र’ का जो हस्तांतरण पीढ़ी दर पीढ़ी होता रहा उससे ‘धर्मचक्र’ की रक्षा तो होती रही। पर सामान्य समाज के जीवन से ‘धर्मचक्र’ लुप्त हो जाने के कारण ‘धर्मचक्र’ के द्वारा सनातन धर्म और संस्कृति का पोषण न हो सका।अतः ३०००बर्ष पूर्व ‘धर्मचक्र’ के लुप्तीकरण के साथ ही सनातन धर्म और संस्कृति का विघटन प्रारंभ हो गया था जो अब अपने चरम पर पहुंच गया है।
धर्मचक्र के बाल पर ही हमने अपने प्राणप्रिया भारत को भौतिक और सांस्कृतिक पक्ष से स्वर्णिम बनाए रखा
इस उत्तरदायित्व रूपी एकमात्र और सर्वोपरि कर्तव्य का जब तक हम भारतीय निर्वाह करते रहे तब तक हम विश्वविजयी बने रहे। और यह विश्वविजय हम भारतीयों के लिए और संपूर्ण विश्व की प्रजा के लिए सदैव स्वर्णिम और पवित्र रही ,क्योंकि इसके लिए हमने कभी किसी का रक्त नहीं बहाया । किसी का गला नहीं काटा किसी का शोषण नहीं किया अपितु स्वयं का ही सर्वस्व बलिदान कर सदैव हम भारतीयों ने एक पिता की तरह धर्मचक्र के द्वारा विश्व प्रजा का पोषण किया।
भारतीयों द्वारा धर्मचक्र के वैश्विक प्रवर्तन के कारण ही देवताओं और विश्व ने भारतीयों को ‘आर्य’ नामपद से संबोधित किया
किंतु दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि आज से लगभग 3000 वर्ष पूर्व कर्तव्यहीनता के कारण ‘धर्मचक्र’ हम भारतीयों के जीवन से लुप्त हो गया। और यह कर्तव्यहीनता हम भारतीयों के लिए विकट दुर्भाग्य बना। जिस कारण भारत भारतीय और भारतीयता अधोगति में पतित और विनष्ट होती हुई अपने न्यूनतम स्तर पर आ गई। जिस वृक्ष का मूल ही ना हो, वे वृक्ष कैसे हरा भरा रह सकता है। अत: सनातन धर्म रूपी वृक्ष, अपना मूल अर्थात ’धर्मचक्र‘ लुप्त हो जाने से पूरी तरह से सूख गया। परिणामत: सनातन धर्म रूपी वृक्ष जिसका मूल तो भारत में था किंतु जिसकी शाखाएं और पत्तियां पूरे विश्व में पसार थी, और जिसकी छांव रूपी प्रकाश से संपूर्ण विश्व की, जो मानवता रक्षण, पालन, पोषण और सार्थकता पाती रहीं, अब वह अंधकार और दिशाहीनता से घिर कर, भांति-भांति के मिथ्या संप्रदाय और धर्म में फंसकर तीव्रता से अधोगति को प्राप्त होते हुए कोटि-कोटि यातना और कष्ट सहते हुए पशुमय जीवन जीने पर विवश हुई।
इसी के साथ हम भारतीयों का सर्वस्व ही जैसे लुप्त हो। हम भारतीयों का स्वर्णिम अतीत मात्र एक मिथ्या स्वप्न बन कर रह गया। हमारा धन, बल, ऐश्वर्य, पराक्रम, गौरव आदि सब जाता रहा। हम भारतीय आज एक नार्किय जीवन जीने पर विवश है।
भारत भारतीय और भारतीयता आज क्षीणता के क्रमशः अपने न्यूनतम स्तर पर पहुंच गए हैं। अगर आज इनकी रक्षा नहीं की गई तो यह सदैव के लिए विनष्ट ही हो जाएंगे।
अगर हम भारतीयों को अपना स्वर्णिम अतीत पुनः प्राप्त करना है और अगर हमें भारत भारतीय और भारतीयता का पुनरुत्थान करना है , तो उसका एकमात्र उपाय पुनः पवित्र और कल्याणकारी विश्वविजय को प्राप्त करना है। जिसकपर हम भारतीय का एकनिष्ठ अधिकार है तथा यह विश्वविजय ही हम भारतीयों के जीवन का आधार है। यह पवित्र और कल्याणकारी विश्वविजय ही भारत भारतीय और भारतीयता के पुनरुत्थान का एकमात्र उपाय है।
धर्म के अवतरण के लिए परम पवित्र तथा ऐश्वर्यमयी भूमि की आवश्यकता होती है। जहां पर प्रकृति अपने संपूर्ण यौवन के साथ तथा अलौकिक ऐश्वर्या के साथ विराजित हो सके, जहां पर छ: ऋतुओं को धारण किए हुए कालचक्र सदैव उपस्थित रहे । जहां पर भूमि अपने अमृतमय अन्न से तत् संबंधित राष्ट्र का ही नहीं
अपितु संपूर्ण धर्माकांक्षी विश्वप्रजा का पालन पोषण तथा भरण कर सकने में सक्षम हो। तथा उसे भूमि में इतना बल हो कि वह धर्म का प्रवाह संपूर्ण विश्व में निरंतर बनाए रख सके।तथा अपनी इसी विशिष्टता के कारण वह भूमि धर्मभूमि कहलाती हैं। भारत ही एकमात्र धर्मभूमि है। सदैव ही धर्माकांक्षी विश्वप्रजा का भरण करने के कारण यह पवित्र तथा दिव्य धर्मभूमि ‘भारत’ कहलाईं।
अतः विश्व में सनातन धर्म का केंद्रबिंदु भारत बना। भारत से ही सनातन धर्म संपूर्ण विश्व में प्रवाहित हुआ। क्योंकि सनातन धर्म और सनातन संस्कृति का मूल स्त्रोत धर्मचक्र है अतः इस प्रवाह का मूल स्तोत्र धर्मचक्र ही था। इस प्रवाह के स्वर्णिम प्रकाश में ही संपूर्ण विश्व प्रजा जीवन के हेतु को प्राप्त करती रही । जिससे विश्व में मानवता की रक्षा हो सकी तथा इसकी सार्थकता बनी रही
किन्तु संपूर्ण विश्व में सनातन धर्म का सतत प्रभावित रहे इसका उत्तरदायित्व हम भारतीयों पर आया।
और यही उत्तरदायित्व हम भारतीयों के लिए स्वर्णिम वरदान बना।
यही उत्तरदायित्व ‘पवित्र विश्वविजय’ है।
इस उत्तरदायित्व के निर्वाह के बल पर हम भारतीय विश्व में सर्वोच्च समुदाय के रूप में प्रतिष्ठित हुए । तथा इस कर्तव्य निर्वाह के बल पर ही अपना जीवन सर्वोच्च स्तर पर व्यतीत करते हुए संपूर्ण विश्वप्रजा का सदैव नेतृत्व और मार्गदर्शन किया। विश्वप्रजा हम भारतीयों के पदचिन्ह पर चलने को सदैव अपना सौभाग्य मानती रही।
धर्मचक्र के बल पर हमने सदैव विश्व पर अनुशासन किया और भारत विश्व गुरु के कहलाया ।
धर्मचक्र के बाल पर ही हमने अपने प्राणप्रिया भारत को भौतिक और सांस्कृतिक पक्ष से स्वर्णिम बनाए रखा
इस उत्तरदायित्व रूपी एकमात्र और सर्वोपरि कर्तव्य का जब तक हम भारतीय निर्वाह करते रहे तब तक हम विश्वविजयी बने रहे। और यह विश्वविजय हम भारतीयों के लिए और संपूर्ण विश्व की प्रजा के लिए सदैव स्वर्णिम और पवित्र रही ,क्योंकि इसके लिए हमने कभी किसी का रक्त नहीं बहाया । किसी का गला नहीं काटा किसी का शोषण नहीं किया अपितु स्वयं का ही सर्वस्व बलिदान कर सदैव हम भारतीयों ने एक पिता की तरह धर्मचक्र के द्वारा विश्व प्रजा का पोषण किया।
भारतीयों द्वारा धर्मचक्र के वैश्विक प्रवर्तन के कारण ही देवताओं और विश्व ने भारतीयों को ‘आर्य’ नामपद से संबोधित किया
किंतु दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि आज से लगभग 3000 वर्ष पूर्व कर्तव्यहीनता के कारण ‘धर्मचक्र’ हम भारतीयों के जीवन से लुप्त हो गया। और यह कर्तव्यहीनता हम भारतीयों के लिए विकट दुर्भाग्य बना। जिस कारण भारत भारतीय और भारतीयता अधोगति में पतित और विनष्ट होती हुई अपने न्यूनतम स्तर पर आ गई। जिस वृक्ष का मूल ही ना हो, वे वृक्ष कैसे हरा भरा रह सकता है। अत: सनातन धर्म रूपी वृक्ष, अपना मूल अर्थात ’धर्मचक्र‘ लुप्त हो जाने से पूरी तरह से सूख गया। परिणामत: सनातन धर्म रूपी वृक्ष जिसका मूल तो भारत में था किंतु जिसकी शाखाएं और पत्तियां पूरे विश्व में पसार थी, और जिसकी छांव रूपी प्रकाश से संपूर्ण विश्व की, जो मानवता रक्षण, पालन, पोषण और सार्थकता पाती रहीं, अब वह अंधकार और दिशाहीनता से घिर कर, भांति-भांति के मिथ्या संप्रदाय और धर्म में फंसकर तीव्रता से अधोगति को प्राप्त होते हुए कोटि-कोटि यातना और कष्ट सहते हुए पशुमय जीवन जीने पर विवश हुई।
इसी के साथ हम भारतीयों का सर्वस्व ही जैसे लुप्त हो। हम भारतीयों का स्वर्णिम अतीत मात्र एक मिथ्या स्वप्न बन कर रह गया। हमारा धन, बल, ऐश्वर्य, पराक्रम, गौरव आदि सब जाता रहा। हम भारतीय आज एक नार्किय जीवन जीने पर विवश है।
भारत भारतीय और भारतीयता आज क्षीणता के क्रमशः अपने न्यूनतम स्तर पर पहुंच गए हैं। अगर आज इनकी रक्षा नहीं की गई तो यह सदैव के लिए विनष्ट ही हो जाएंगे।
अगर हम भारतीयों को अपना स्वर्णिम अतीत पुनः प्राप्त करना है और अगर हमें भारत भारतीय और भारतीयता का पुनरुत्थान करना है , तो उसका एकमात्र उपाय पुनः पवित्र और कल्याणकारी विश्वविजय को प्राप्त करना है। जिसकपर हम भारतीय का एकनिष्ठ अधिकार है तथा यह विश्वविजय ही हम भारतीयों के जीवन का आधार है। यह पवित्र और कल्याणकारी विश्वविजय ही भारत भारतीय और भारतीयता के पुनरुत्थान का एकमात्र उपाय है।
१. किसी श्रषि को हिमालय पर जाकर 14 वर्ष की आयु से 80 वर्ष की आयु तक 12 जन्म तक तप करने पर जो आत्मजागृति और प्रज्ञा प्राप्त होती है वह आत्मजागृति और प्रतिज्ञा धर्मचक्र के एक मास के सम्यक अभ्यास द्वारा प्राप्त हो जाती है ।12 जन्मों तक धर्म की सेवा करने से जो पुण्य प्राप्त होता है वह पुण्य मात्र 5 वर्ष धर्मचक्र प्रवर्तन हेतु सेवा करने पर प्राप्त हो जाता है।
२. धर्मचक्र प्रवर्तन द्वारा पवित्र द्विश्वविजय को प्राप्त करने के संकल्प मात्र से सामान्य भारतीयों में भैरवत्व की सहज स्फुर्णां हो जाएगी। यह स्फुर्णां अदम्य उत्साह और असीम शक्ति में प्ररिणित हो जाएगी। और यह परिणीति पवित्र विश्वविजय में परिवर्तित हो जाएगी। जिससे हम भारतीय अपना स्वर्णिम अतीत प्राप्त कर सकेंगे जिसके हम सदैव उत्तराधिकारी थे।
३. पवित्र विश्वविजय प्राप्त होने पर ही भारत का उत्थान संभव है और भारत के उत्थान से ही विश्व की प्रजा का कल्याण संभव है और पवित्र विश्वविजय एकमात्र धर्मचक्रप्रवर्तन के द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है।
४. 3000 वर्ष से सनातन धर्म निरंतर भ्रम और षड्यंत्रों मैं फंसकर निष्प्रभावी हो गया है। सहस्त्रों भ्रांतियां सत्य धर्मसिद्धांत कि भांति सनातन धर्म में जड़ जमाए हुए खड़ी हुई हैं। धर्म चक्र द्वारा बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के समस्त नकली धर्म, संप्रदाय, सिद्धांत, और गुरु स्वयं नष्ट हो जाएंगे। और सनातन धर्म गंगाजल की तरह शुद्ध और पवित्र हो होकर अपने मूल अवस्था में आ जाएगा। और हम भारतीयों को पुनः एक बार मूल सनातन धर्म प्राप्त हो जाएगा।
५. धर्म चक्र द्वारा हम 3000 वर्ष पश्चात पुणे संपूर्ण विश्व में सनातन धर्म की पुनर्स्थापना कर सकेंगे इसके द्वारा विश्व की प्रजा सुख समृद्धि और कल्याण को प्राप्त होगी। हम भारतीयों का यही कृतत्व सदैव रहा है।
६. . राष्ट्र संस्कृति और धर्म के संरक्षण और उत्थान हेतु जो भी सेवाकार्य और संघर्ष व्यक्ति विशेष और संस्थाओं द्वारा किए जो सेवा कार्य किए जा रहे हैं। वह अभी तक निष्प्रभावी और परिणाम रहित रहे हैं कारण की जो कुछ भी है सबका आधार धर्म चक्र ही है। यह सब विशेष व्यक्ति और संस्थाएं धर्मचक्र के द्वारा अपने द्वारा सेवा कार्यों को मूर्त रूप दे सकेंगे।
कहने का अभिप्राय यह है कि सनातन राष्ट्र संस्कृति धर्म का मूलाधार धर्म चक्र ही है और धर्म से ही इनका उत्थान तथा संरक्षण संभव है